Friday, July 29, 2011

मीडिया और उसकी प्रासंगिकता


मीडिया यानि की लोकतंत्र का चौथा स्तंभ। ताकत इतनी कि क्षण भर में ही क्रांति की ज्वाला भडका दे और चीर नीद्रा में सोई सरकार को हिला कर रख दे। लेकिन लगता है इस तरह के कारनामें अब कहानियों और किस्सों का रुप ले चुके है। अब तो ये कारनामें कभी कभी ही सुनने में आते है, जिनमें मीडिया का कुछ रोल होता है। इसका सबसे बडा कारण है मीडिया का औद्योगीकरण। अब लोकतंत्र का यह चौथा स्तंभ व्यवसाय बन गया है। टीआरपी की होड में सामाजिक सारोकारों से जुडे मुद्दे गायब हो रहे है। आम आदमी और उससे जुडी समस्याएं मीडिया की परिधि में नही आतीं। अब इसकी परिधि में कुछ आया तो वह है ग्लैमर और मसालों से भरी चटपटी खबरंे। इसका ताजा उदाहरण है अभी हाल ही में भारत के तीन दिवसीय दौरे पर आई पाकिस्तान की विदेशमंत्री हिना रब्बानी खार। चाहे वह इलेक्ट्रिानिक मीडिया हो या प्रिंट सभी जगहों पर भारत और पाकिस्तान के प्रमुख मुद्दे गायब रहें, अगर चर्चा में रहा तो हिना का ग्लैमरस लुक, उनका पहनावा-ओढ़ावा। इलेक्ट्रिानिक मीडिया ने तो हिना के एयरपोर्ट पर उतरते ही उनकी ग्लैमरस अंदाज की बखान शुरु कर दी। अन्य दूसरे दिनों की तरह ही मैं भी सुबह आॅफिस पहुंचा और पेपर पढने लगा तो उस पेपर के एक पृष्ठ के आधे भाग पर केवल हिना रब्बानी का ही समाचार था। मुझे लगा कि इतने बडे कालम में दोनो देशों के मंत्रियों के बीच हुई वार्ता का विश्लेषण होगा लेकिन अफसोस की उन खबरो से मुद्दे गायब थे। उस कालम की खबरों के हिस्सा बने थे तो हिना के वस्त्र ,उनका चश्मा, पर्स और बैग। मुझे उसी अखबार से पता चला कि हिना रब्बानी के बैग की कीमत 12 लाख थी। उस खबर के पढने के बाद पहले तो मुझे हंसी आई लेकिन फिर मैं सोचने लगा कि क्या लोकतंत्र के चौथे स्तंभ में खबरों का रुप बदल गया है या फिर दर्शक भी वही देखना चाहते है? ऐसा नहीं है कि यह पहली बार हुआ है, इससे पहले भी कई ऐसे वाकये है जो मीडिया पर कई अनुत्तरित सवाल खडे कर दे रहे है। चाहे वह वल्र्ड कप हो या आईपीएल, उस समय पुरी मीडिया में वही छाया रहता है। किसी खिलाडी की क्या दिनचर्या है या किस खिलाडी के किसके साथ अफेयर चल रहे है ये खबरे इनकी प्रमुखता होती हैंै। पेड न्यूज यानि पैसे के एवज में खबरे छापना, यह भी मीडिया को कठघरे में खडा कर रहा है और उसकी प्रासंगिकता पर प्रश्न खडा कर रहा है। एक तरफ मुल्क में इलेक्ट्रिानिक मीडिया और प्रिंट मीडिया की संख्या बढती जा रही है तो वही दूसरी तरफ उसकी धार भी कुंद होती जा रही है। और शायद मीडिया की कुंद होती धार का ही परिणाम है कि मुल्क में आम जनता से जुडी तमाम समस्याएं सुरसा की तरह मुंह फैलाये खडी है। दूसरों के घोटालों और उन पर लगें आरोपों की आलोचना करने वाली मीडिया को अपने अन्दर भी झांक कर देखना चाहिए कि क्योकि पिछले कुछ दिनों में मीडिया के दामन भी दागदार हुए है। साहित्य की तरह मीडिया भी समाज का दपर्ण हैं जिसके साथ इसके नुमाइंदो को न्याय करना ही होगा।

Saturday, July 23, 2011

डैगन की दोगली नीति

आज भारत और चीन प्रतिद्वंदी एवं सहयोगी दोनों है। यहीं दोनों के सम्बन्धों की सबसे बडी विचित्रता है और विडंबना भी। जहां भारत इन संबंधों के लेकर हमेशा सकारात्मक भूमिका निभाता रहा है वही चीन हमेशा ही अपनी दोगली नीति की भाषा बोलता रहा है। चीन की कुटनीतिक संस्था चाइना इन्टरनेशनल फाॅर सट्रटजिक स्टडीज के वेबसाईट पर जारी एक लेख में चीनी विशेषज्ञ जान लुई ने अपनी सरकार को भारत को 20 से 25 टुकडों में बांटने की सलाह दी है। इस लेख के कुछ दिनों बाद ही भारतीय सीमा में चीनी सैनिको द्वारा पैकेट गिराना, भारत की सीमा में प्रवेश करना, उसकी दोगली और विस्तारवादी नीति को ही दर्शाता है। 1962 के भारत चीन युद्ध के बाद से ही और आज तक चीन भारत को लगातार अस्थिर करने और चारो तरफ से घेर कर सामाजिक दृष्टि से कमजोर करने में लगा हुआ है। जिसका सीधा उदाहरण है 1962 का युद्ध। भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरु के हिंदी चीनी भाई-भाई के नारे के बावजूद चीन ने भारत के खिलाफ युद्ध छेड दिया। और दुश्मनी के बीज बोने शुरु कर दिये। उसने फिर से एक बार 1965 के भारत और पाकिस्तान युद्ध के समय पाकिस्तान का समर्थन कर दुहराया।की वो भारत के साथ नहीं खडा है। उसके बाद श्री मति इंदिरा गांधी ने दोनो देशों के रिश्तों को सुधारने की पुरजोर कोशिश की लेकिन यह कोशिश भी पुरी तरह से असफल रहीं। सन् 1986 में बीजिग में भारत चीन सीमा विवाद सुलझाने के लिए वार्ता चल रही थी कि उसी समय अरुणाचल प्रदेश के समदुरांग घाटी में चानी सैनिक कई किलोमीटर तक अंदर आ गये थे, इतना ही नहीं फरवरी 1967 में जब भारत ने अरुणाचल प्रदेश को अपना 24 वां राज्य बनाया तब चीन ने इसका विरोध किया। मई 1998 में भारत ने जब पोखरण परिक्षण किया तब भी चीन भारत को परमाणु क्षेत्र में एक महाशक्ति बनता देख जल भुन गया था। और इसके साथ ही यह आरोप भी लगाया कि भारत दक्षिण ऐशिया में अपना वर्चस्व स्थापित करने के लिए परमाणु परिक्षण किया है। आज के संदर्भ में चीन की भूमिका को देखा जाए तो यह समझ में आता है कि चीन मुख में राम बगल में छुरी की कहावत को चरितार्थ कर रहा है। एक हाथ दोस्ती के लिए बढा रहा है, तो वहीं उसका दुसरा हाथ गर्दन की तरफ भी है। हाल में हुए विकिलिक्स के खुलासे भी ये साबित करते हैं कि डैगन का नजरिया भारत के प्रति क्या है। पिछले कुछ दिनों से चीन ने अरुणाचल प्रदेश की सीमा पर पेट्रोलिंग बढा दी है। इतना ही नही वह तवांग शहर को भी भारत का हिस्सा मानने से मना कर रहा है। चाहे वे व्यापारिक बिंदु हो या फिर सामुद्रिक, जिसमें वो समुद्री सीमा में भी घेराबंदी कर हिन्द महासागर में भी अपनी स्थिति मजबुत करने के बाद भारतीय उपमहाद्वीप में अपनी अच्छी पैठ बना लिया है। ये कुछ ऐसे मुददें है जो यह स्पष्ट करते है कि चीन भारत के साथ संबंध सुधारने के प्रति कतई गंभीर नहीं है। अब इस बात में कोई संदेह नहीं रह जाता कि चीन भारत के प्रति सहयोगात्मक और साकारात्मक रवैया न अपनाते हुए दोगली और छलने की नीति अपना रहा है। जो कि भारत के लिए आर्थिक, राजनैतिक, सामरिक, व्यापारिक सभी दृष्टियों से घातक है।

Friday, July 15, 2011

मुंबई का दर्द...!


13 जुलाई 2011...........शाम का समय और सड़कांे पर भीड़......,रुकी सड़क पर अपनी मंजिल की और भागते हुए लोग......कही सुरों के तराने की धुन बजनी शुरु हुई थी तो कही थिरकन से घुघरु की आवाज आ रही थी। किसी को घर जाने की जल्दी थी तो किसी को आॅफिस की, हर कोई अपने आप में मगन और मस्त....हर दिनों की तरह ही वुधवार की शाम को भी मुंबई पुरी तरह से अपनी रंग में रंगी दिखाई दे रही थी। लेकिन देखते ही देखते क्षण भर में सारा नजारा बदल गया। और कभी न रुकने वाली मुंबई की चाल थोडी थम सी गई। मुंबई के तीन इलाकों झवेरी, ओपेरा हाउस और दादर में आग और धुए के गुबार उठते दिखाई देने लगे। और बुधवार की शाम को एक बार फिर ऐसा लगा कि भारत की आर्थिक राजधानी को किसी की नजर लग गई है। मै अपने केबिन में बैठा एक स्टोरी की स्क्रिप्ट लिख रहा था कि मेरे आफिस के एक मित्र ने आकर सुचना दी कि सर, अभी अभी मुंबई में सीरियल बम बलास्ट हुए हंै। मै भागा भागा न्यूज रुम की तरफ गया तो देखा कि सभी न्यूज चैनल पर एक ही खबर चल रही थी। चारो तरफ अफरा-तफरी और चीख-पुकार मची हई थी। इस श्रृंखलाबद्ध धमाके में घायल हुए निर्दोषो का एक ही दोष था कि वे आफिस से अपने घर जा रहे थे। एक तरफ पुलिस के आला अधिकारी घटना का स्पष्टीकरण देने में लगे हुए थे तो वही दुसरी तरफ राजनेता और समाज के बुद्धिजीवी इसकी पुरी आलोचना करने में लगे हुए थे लेकिन ये सब देखने के बाद मेरे मन में एक सवाल बार बार उठ रहा था कि क्या आलोचना करने मात्र से ही इतनी बडी समस्या का समाधान निकल पायेगा। जब चाहे तब आतंकवादी मुल्क के बडे शहरों को निशाना बनाने की अपनी नापाक मंशा में कामयाब हो जाते हैं और हमारी सरकार और सुरक्षा ऐजेसियां हाथ पर हाथ धरे बैठी रहतीं हंै। खुफिया और जांच ऐजेसियां किसी हमले के बाद उसका बिश्लेषण करने में माहिर हैं कि आतंकवादियों ने हमले को किस तरह अंजाम दिया। वह कोई पुख्ता जानकारी उपलब्ध कराने में अकसर नाकाम रहीं है। इतना ही नहीं मुल्क की सरकार कसाब और अफजल गुरु जैसे खुंखार आतंकवादियों की मेहमानवाजी में लगी हुई है और इनमें भी वोट बैंक देख रही है। मुल्क को एक साॅफ्ट स्टेट का दर्जा हासिल हो गया है जहां जो चाहे जब चाहे आतंकी हमला कर देता है और सरकार के नुमाइंदे घडियाली आंसू बहाने पहुंच जाते है। सबसे आश्चर्य तब होता है जब देश के गृहमंत्री और मुल्क के राजनेता ये बयान देते हैं कि इस तरह के हमलों को रोक पाना संभव नहीं है। तो सवाल यह भी उठता है कि देश की सुरक्षा ऐजेसियां किस लिए बनाई गई है, उनका क्या रोल है? जब देश सुरक्षित ही नहीं है। यह एक ज्वलंत प्रश्न है?