Monday, June 20, 2011

क्या उत्तरप्रदेश में भी बदलाव की जरुरत है?

उत्तरप्रदेश से मेरा लगाव कुछ अलग है। भले ही मै बिहार में पला बढा लेकिन जीवन जीने की कला सिखाइ इसी राज्य ने और शायद यही कारण है कि जब भी यहां कुछ अच्छा नहीं होता तो मन उद्वेलित हो जाता है। पिछले कुछ दिनों से राज्य के किसानों पर हुआ अन्याय हो या अपराधिक वारदातें इन सभी ने एक बार फिर कुछ सवालों को ज्वलंत कर दिया है कि क्या बिहार, बंगाल, केरल, तामिलनाडु और अन्य राज्यों की तरह उत्तरप्रदेश में भी सियासी बदलाव की जरुरत है? क्या यूपी में विकास की बयार थम गई है? क्या यूपी में एक अच्छे स्थायी और टिकाउ नेतृत्व की कमी महसूस की जा रही है? क्योंकि यह वही उत्तरप्रदेश है जहां से ही दिल्ली की सत्ता का रास्ता निकलता है, जिसकी राजधानी पुरे देश के सामने तहजीब की मिसाल भी पेश करती है। आज वही उत्तरप्रदेश अपराधप्रदेश में तब्दील हो गया है। आखिर क्यो? सर्वजन हिताय और सर्वजन सुखाय और एक अच्छें शासन का वादा करने वाली माया सरकार की प्रदेश के प्रति माया कहां चली गई है? क्यों राज्य की जनता बदहाली में जीने कि लिए मजबुर है? और अपने को पुरी तरह महफुज नहीं पा रहीं है। जिस तरह से पिछले तीन या चार महीने में यूपी में अपराध का ग्राफ बढा है उसमें माया सरकार की नाकामी साफ दिखाई दे रही है। दलितो की मसीहा कहलाने वाली और उनपर अपनी कृपा दिखाने वाली मायावती के तेवर अब ठंडे पडते दिख रहे है। आज यूपी की हालात देख कर 12 साल पुराने बिहार की याद ताजा हो जा रही है जब वहां भी अपराध का बाजार खुलेआम चलता था। उस समय बिहार की हालत भी आज की यूपी की तरह ही थे। जहां हर ओर अपराध और अपराधियों का ही बोलबाला था और चारो ओर फैला था जंगल राज्य। और आज कुछ ऐसी ही हालत यूपी के है जहां अपराधियों के हौसले पुरी तरह बुलंद हंै। जहां एक तरफ माया का सरकारी तंत्र अपराध को काबु करने और जन समस्याओं को हल करने में पुरी तरह विफल होता दिख रहा है वही दुसरी तरफ इन सारे मुद्दो पर अन्य राजनीतिक पार्टियां भी अपनी अपनी राजनीति की रोटीयां सेकने में पीछे नहीं है। चाहे वह चाटुकारों की पार्टी कांग्रेस हो या फिर मुल्क की राजनीति में अपना अस्तित्व तलाश रही बीजेपी। मै कुछ राजनीति के इतिहास में झांकना चाहुंगा कि कांगेस तो ऐसा लग रहा है कि स्व. इंदिरा गांधी के ही कदमों पर चल पडी है। गरीबी हटाओ का नारा देने वाली इंदिरा गांधी का मकसद गरीबी हटाना नहीं बल्कि गरीबी हटाओ का नारा दे कर जनता में मेहरबानी का अहसास पैदा करना था और कुछ ऐसी ही स्थिति इस समय कांगेस और कांग्रेस के युवराज की है। फिलहाल देखना यह होगा कि अगले साल यूपी की परिक्षा में कांग्रेस को आम आदमी का साथ मिलता है कि नहीं। राजनीति के गर्म तवे पर सियासी रोटियां सेकने में बीजेपी भी पीछे नहीं है जिसका सीधा उदाहरण है उमा की वापसी। आपसी कलह, खोते जनाधार और अपनी मुख्य धारा की राह से भटकने वाली बीजेपी को यूपी की राजनीति में डगमगाती अपनी नाव को खेने के लिए उमा का सहारा लेना पडा हैं लेकिन यहां एक सवाल मेरे मन में कौंध रहा है कि क्या 6 साल के वनवास के बाद उमा यूपी में खोया हुआ जनाधार वापस ला पायेगी? और कुछ ऐसी ही हालत समाजवादी पार्टी के है। उत्तरप्रदेश में जातिवाद की राजनीति कर अपनी सियासी कद को बढाने वाले धरतीपुत्र सत्ता में आने के बाद धरती और उससे जुडे लोगों से किए वादों को भूल गए और और इनके शासन काल में वो सारे काम किए जो इन्हें सत्ता से बेदखल करने में अपनी अहम भागिदारी निभाई। और रही सही कसर पार्टी की अंदरुनी मतभेद ने पुरी कर दी। बिहार या अन्य राज्यों को संयोग से उनके मुखिया तो मिल गए लेकिन यूपी को कैान मिलेगा जो उसकी पुरानी खोयी विरासत को वापस ले आये और विकास के रथ को आगे बढाए? यह एक यक्ष प्रश्न है।

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